Thursday 13 December 2012

हाफ स्वेटर

जाड़ों ने आहट दे दी है
सर्दियां अब करीब हैं
बक्से, अलमारी खोलो
हाफ स्वेटर निकालो
सर्दियां अब करीब हैं

स्वेटर में दबी मिलेगी
कपूर की गोली
उसे सूंघने का मज़ा, कुछ और है

आज से चार सवेरे पहले
किसी दुपहिया चालक को
स्वेटर पहने देखा
तो सोचा, "गधा है"
आज देखा तो सोचा, "समझदार है"

अब मिलेंगी गरम मूंगफलियाँ
अब निकलेंगी रजाइयां
अब सिकेंगे हाथ तवे पर
अब चाय पीने का अलग होगा मज़ा
अब वक्त आ गया है सर्दियों का    

रवानगी

दिल तू हौले-हौले संभल जा
बात मान जा, दरखास्त मान जा

तुझे रास्तों पे सँभालते हुए ऐसे चलते हैं हम,
जैसे रूई के फोहे हाथ में ले रखे हों
डर सताता है, किसी के हाथ मारने
की कोशिश भर से ही
राख ना हो जाए यह दिल मेरा 


भला कब तक यूँ तुझे संभालें,
कब तक तुझे बचाते फिरें

इसीलिए कहती हूँ 
तू हौले हौले संभल जा
बात मान जा, दरखास्त मान जा

शिकायत मुझे, कुछ और भी है 
मसलन, तू क्यूँ उन लच्छेदार बातों में बार-बार आ जाता है 
तू क्यूँ उन रास्तों में जाता है 
जहाँ तेरे वास्ते सिर्फ फिसलन लिखी है 

गौरतलब यह भी है,
तेरी और मेरी कभी ज्यादा बनी नहीं
पब्लिक में मैंने तुझे भाव दिए नहीं
पर सवासेर तू भी था 
हाथ आए मौके, तुने भी गवाए नहीं

पर मैं समझती हूँ
तू अब सयाना हो चला है
उम्र भी गिनने लायक हो गई है
सफेद रेशमी धागे कहीं- कहीं दिखने लगे है 
मैं समझती हूँ 
तू वादों का पक्का हो चला है

फिर काहे का झगडा
और क्यूँ करें इतनी मगजमारी
आ पास बैठ, दो बातें कर ले
आ समझोता कर लें

मैं माफ़ी माँगूँ , तू माफ़ कर दे
मैं तेरी देखरेख से मुक्त हो जाऊं,
और तू मुझे उम्र के इस पड़ाव पर,
सुकून अदा कर दे


Wednesday 12 December 2012

मेरे कातिल का नाम न पूछना
उसको नाम मैंने, अभी दिया नहीं
वो मुझसे जन्मा है
और मेरे साथ ही रवानगी है उस की

यह झुंझलाहट, ये बेबसी
अभी सन्देह मुझे भी है,
वो मददगार है या कातिल 

Monday 29 October 2012

एकरंगी धुआं, लपेटे बहुरंगी ख्वाब

बादल सा उड़ता है ये धुंआ, मेरे कमरे में  
बादल में ख्याब के गुच्छे लगे हैं 
आंच की कमी है, अभी पके नहीं हैं 

हर कश के साथ, ख्वाब निकले
ख्वाबों से भर उठा है मेरा कमरा, 
ख़्वाबों की कमी कहाँ है?
सुना है, ज़िन्दगी हिम्मत की मोहताज़ है 

कश लगाता धुंआ, धुओं में मिलता धुंआ 
धुएँ के बादल छाए हैं दिमाक पर
उम्र भी धुँऐ सी उड़ रही है 
उन्ही धुओं में अपनी ज़गह बनता धुंआ 

एकरंगी धुआं, लपेटे बहुरंगी ख्वाब  

हम दोनों दौड़ रहे हैं, धुंआ हो जाने की दौड़ में 
दोनों को जल्दी है, खाक हो जाने की 
पर लगता है, मुझसे ज्यादा इसे थी
जैसे यह राख हुई है, मेरा भी यही अंत होगा 
मेरे जाने के बाद, थोड़ी न मेरा अस्तित्व होगा 
मैं यहाँ दिखती हूँ, क्यूंकि अभी जिंदा हूँ, 
सुनाई देती हूँ, क्यूंकि अभी जिंदा हूँ, 
मैं जो भी हूँ, सफल, असफल, इस दरमियान हूँ,
इस जलने और बुझने  के बीच 
मुझे एक गाने की पंक्तियाँ याद आ रही हैं 
"जीने वाले, सोच ले, यही वक्त है कर ले पूरी आरज़ू"





  

Saturday 20 October 2012

ऊन उधेड़े, छंद बिखेरे

रात करे बात, हिसाब मांगे मिजाज़ 
धुन लपेटे, बुने-उधेड़े 
ऊन उधेड़े, छंद बिखेरे 

जिक्र आया, फ़िक्र आई 
बंद गला, इंग्लिश टाई 
ऊन उधेड़े, छंद बिखेरे 

अखबार श्रीमान , खबर बेईमान 
सच है बेकार, झूठ है असरदार 
क्या करे बेचारा, बेबसी का मारा 
ऊन  उधेड़े, छंद बिखेरे  

कुर्सी, मेज़, होते हैं पूरक 
सैयां रंगरेज़, जाने न मुरख 
आदत का मारा, दिल बेचारा 
ऊन  उधेड़े, छंद बिखेरे   

टोटकों में डूबा, चमत्कार ढूँढता 
चिलम, अफीम के नशे में, भगवान् ढूँढता 
मस्त फिर भी दिल मग्न 
ऊन  उधेड़े, छंद बिखेरे   



Friday 12 October 2012

Myrrah (माय्र्रह )


रात आई, रात आई 
टिमटिमाते तारे साथ लाई 
एक तारा उन में सबसे बड़ा 
रिश्ते में लगता मामा सा 

रात आई, रात आई 
कभी सुहावने, 
तो कभी डरावने 
सपने साथ लाई 

रात आई, रात आई 
और, लगता है, बिटिया को मेरी, नींद आई 
दिन भर धमाचौकड़ी मचाने के बाद 
बिटिया ने अब आराम करने की है ठानी 
पर इससे पहले की बिटिया सोए 
मासी को सुनानी होगी- एक कहानी 

कहानी नहीं होनी चाहिए, बोरिंग और बासी 
नहीं तो गुडिया ये नहीं सोएगी, सुन लो मासी 

फिर ले के बैठे रहना उसे गोद में 
जो उसने ठान ली, भला इसी में है की तुमने बात मान ली 

सो मासी जल्दी से सुना दो 
भालू और गिलहरी की दोस्ती वाली कहानी 
और गोद में तुम्हारी आराम से सो जायेगी 
यह नटखट शैतान, खुशियों की पुडिया, सयानी 




Thursday 20 September 2012

"नहीं "

माल कुछ ऐसा जिसे ग्राहक मिला नहीं
शेर कुछ ऐसे जिसे श्रोता मिला नहीं
नन्ही जानें कुछ ऐसी जिन्हें माँ नसीब हुई नहीं 
ज्ञान कुछ ऐसा जिसका मान हुआ नहीं 
बरतन ऐसे जो कभी बजे नहीं 
बच्चे ऐसे जो कभी रूसे नहीं 
मर्द कुछ ऐसे जो कभी हँसते नहीं  
राज़ कुछ ऐसे जो छुपाये छुपते नहीं
अफवाह कुछ ऐसी जो रुके रूकती नहीं
शामें कुछ ऐसी जो लाख कोशिशों बावजूद अभी तक ढली नहीं 
यादें कुछ ऐसी .... 
घटिया कविताएँ कुछ ऐसी जो जाने-अनजाने आपको पढ़नी पड़ी 
 :)



Wednesday 5 September 2012

मतलब बेमतलब की


पन्ने, उन पर लिपटी चंद पंक्तियाँ, मतलब बेमतलब की
झूझती हुई, मतलब के लिए लडती हुई 
और पीछे खड़ी परछाई,
लिखने वाले की 
लिखता इंसान है या दिल या दिमाक या कला 
सुनती हवाएं हैं, या आकांशाए , मतलब बेमतलब की
मैं कुछ कहूँ और हवाओं पे तैरते हुए तुझ तक पहुंच जाएँ 
बातें, मतलब बेमतलब की 




"तुम से नहीं होगा"


शक करना,शक जाताना, कहना तुम से नहीं होगा ये 
बच्चों के साथ मत करो ये सब 
हम भोगे हुए हैं, सो जानते हैं 
वो disapproval जो तुमने बस आँखों से ही जाता दिया था 
या यूँ अजीब सा मुह बनाकर जाहिर कर दिया था 
वो कहीं ठहर न जाए उसकी ज़िन्दगी में 
शक करना,शक जाताना, कहना तुम से नहीं होगा-ये सब 




Sunday 2 September 2012

पलायनवादी परंपरा

बदल कड़के,मेघ बरसे
हम तरसे, हम तरसे 
अब जब यूँ है तरसे 
जी करता है, निकल पड़े घर से 
अब जब यूँ है तरसे 
जी करता है , गुम हो जाएँ इधर से 
हम  गुम हों, लोग गुमशुदा की रपट लिखवायें
पर हम  लौट के ना आयें 
भाग जाने में जो मज़ा है 
उसका स्वाद क्यूँ गवाया जाए 

पलायनवादी परंपरा  तो हमरी नसों में है  
हमने कई बार पलायन किया है 
इस बार एक नयी शुरुवात करना चाहते हैं , भाग कर 
इस बार इक नयी कहानी गढ़ना चाहते हैं, भाग कर 

Saturday 21 July 2012

डर लगता है ज़िन्दगी मात दे देगी 
यहीं कहीं उलझी रहती हूँ 
फिर कभी एकदम से याद आता है, डर हावी होता है 

उलझना है तो उससे उलझूं 
गिडगिडाना है तो उसके सामने गिडगिडाऊँ 
ललकारना है तो उसे ललकारूं 

ज़िन्दगी- ये कहानी तेरी और मेरी है 

ये झगडा तेरा और मेरा है 
ये खुशगवार मौसम तेरे और मेरे बीच के हैं 
बाकी सब आने जाने हैं, मेहमान हैं 
मैं बाकियों में पड़ कर तुझे नही भूलना चाहती 
मुझे डर है तू मात न दे जाए 



Monday 16 July 2012

हाथों की लकीरों पे तकदीर लिखी होती है ?
तो पैरों की पे क्यूँ नही ?
क्यूँ तकदीर लिखने वाले ने उसे हाथ पे ही छापना ठीक समझा 
या यूँ हुआ, पहले पहल समझने वाले को,
हाथ हाथ में ले कर, पकड़ना अच्छा लगा , पैर पकड़ने से 

माथे की लकीरें भी कुछ कहती हैं?
रेत इंसान होती तो रेत की लकीरें भी भाग्य बताती 
कुछ अपना, कुछ उनका जो उस के सीने को सहला के गए हैं 

रेत के भी अपने तरीकें होते हैं , वो मालूम नही होने देती
मुझसे पहले कितने उस पे चल के गए हैं 
मैं एक बार रेत पे गयी थी मेरा कुछ हिस्सा आज भी वहां है 

Sunday 17 June 2012

आसमान के परे क्या है?
भगवान् की बस्ती?
परियों की हस्ती ?
या अथाह  फैला स्याह अँधेरा?

मेरे भीतर क्या धरा है?
कोई आत्मा या छोटे छोटे cells की फैक्ट्री

क्या पता? और क्या लेना मुझे?
क्या ज़रूरी है और क्या व्यर्थ ?





Monday 2 April 2012

एक पाक विधि ( recipe )


एक पाक विधि ( recipe )

अपने सारे ग़मों को ओखल में डाल, कूट लो
और उन्हें अदरक मान, चाय में डाल, पी जाओ
कडवी लगेगी पर सेहत के लिए अच्छी है

जब किसी पर गुस्सा आये, हफ्ते दो हफ्ते रुका जाएँ,
फिर उन 'किसी' को चाय पे बुला कर,
वही अदरक की चाय मिल कर पीई जाए

अगर ज़िन्दगी से निराशा है,
या यूँ कह लो खुद से हताशा है
इन सभी शा'ओं की गठरी बाँध, दूर वीराने में डाल आओ

अगर दिल में चुभी बातों की एक किताब बना रखी है
जिसमें क्रमानुसार लेखा जोखा सजा हो
कब किसने ठेस पहुंचाई
अगली पूर्णिमा की रात
उस किताब का होलिका दहन कर आओ


क्यूँ? क्या जल्दी है? 


क्या तुम कछुआ हो?
बरगद हो? या श्री भगवान् हो?
न मरना का वरदान प्राप्त है तुम्हे?
नहीं ना? तो तुम्हारी ज़िन्दगी बहुत लम्बी नहीं है !!
क्या पैदा होने पर कान में किसी ने ये कहा था की बहुत जीयोगे
पर याद दिलाने के लिए माफ़ी
'बहुत' तो तुम जी चुके हो
अब तो 'कुछ' ही बाकी है
इसीलिए ग़मों, हताशाओं, लाचारी, बेचारी
का पोटला उठाओ, और समुन्दर में फ़ेंक आओ,
समुन्दर न मिले तो मिटटी खोद दफ़न कर दो उन्हें
ज़िन्दगी छोटी है, बुरी गुज़रे तो और भी छोटी

इतनी बीती है, शेष भी बिना बताये बीत जायेगी
कैसे बीतेगी, आज तय कर लो
मान जाओ ये बात,
ज्यादा वक्त नहीं है अब तुम्हारे पास

अंतर्विरोध

जो लोग कहते हैं, उन्हें उम्र भर प्यार ना मिला
मुझे शक होता है, की उन्होंने उम्र भर किसी को प्यार नहीं किया
मुझे शक होता है, वो किस प्यार की बातें कर रहे हैं
प्यार से ज्यादा two-way , प्यार से ज्यादा पारस्परिक तो शायद कुछ है ही नहीं
मैं मिलना चाहूंगी  उस बेचारे से, जिसे कभी प्यार नहीं मिला
वो मेरे लिए अजूबा है, किताबी है, देखना चाहूंगी उसे

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प्यार ना मांगने की चीज़ है न खींचने की
आप इज्ज़त मांग सकते हो, हक़ मांग सकते हो, प्यार नहीं

जहाँ मुझे प्यार भी माँगना पड़े, वो बस्ती मैं छोड़ना पसंद करुँगी 

ख़ामोशी से

इतना बदल जाओ, की खुद को पहचान ही न पाओ
गलतियां इतनी बार दोहराओ, की ठूठ हो जाओ
मैं उस परे खड़ी हूँ, जिधर से लगभग कुछ महसूस नहीं होता

कुछ टूटने की देर है, फिर होश आएगा
कुछ चटकने की देर है, फिर महसूस होगा

ऐसा चटकना अक्सर ख़ामोशी से होता है !!

Friday 30 March 2012

खालिस बातें


आधी रोटी आसमान में चमक रही है
ऐसा उछ्लूं, लपक के छू लूँ
भींच कर मुट्ठी में, छुपा लूँ जेबों में

साथ में दो चार जुगनूं भी ले आऊं
एक नया तारामंडल बनाऊं, जेबों में


औरत है कविता


कविता औरत है
बेबस, बेसहाय, प्रशंसा की प्यासी
बात बात पे हाशियों पे रख दी जाने वाली
ताउम्र मान न पाने वाली
खिलोनों की तरह पढ़ी जाने वाली
बाजारों की तर्ज़ पर मुशायरों/ब्लोग्स में नुमाइश लगाने वाली
चुचाप अपनी बारी का इंतज़ार करने वाली
उनके अहम् की प्यास बुझाने वास्ते बनने, मिटने वाली
झूटी शान के चलते इस्तेमाल की जाने वाली
जब चाहा छिटक के दूर कर दी जाने वाली

उसे आदत है बार बार छल्ली होने की
उसे आदत है फिर से सज के बैठ जाने की
कविता को नहीं पता उसकी परिसीमा क्या है
जितना लिखोगे, बढती जायेगी,
खिचती जायेगी, मरती जायेगी
बेबस लाचार कविता
औरत है कविता

Tuesday 27 March 2012

रेत

रेत पे चलना इतना सुकूनदेह क्यूँ होता है
पैरों तले वो गीली मिटटी का एहसास  
वो कदम रखने पर पैरों का धसना ज़मीन पे 

मुझे पसंद है समुन्दर की तरफ मुंह करके खड़े हो जाना 
उसे निहारना जो अंतहीन लगता है
उसे निहारना जो अंत लगता है 
वो शून्यता, वो विचारहीनता, जिससे मैं भर जाती हूँ
वहां आके जैसे सब ठिटक जाता है, बेमानी जान पड़ता है 
जैसे मौत खड़ी हो सामने, जैसे मैं मौत को निहार रही हूँ

एक दिन मुझे भी वहीँ जाके मिल जाना है, जहाँ से मैं आई हूँ 
पर इस सुकून का इक कतरा अपने साथ ले जाना चाहती हूँ 
आज के लिए, 
तब तक के लिए जब तक मैं फिर यहाँ लौट के ना आऊं 
फिर इस पानी को ना निहारूं 

वो लहरों का तेज़ी से मेरी और बढ़ना 
वो पानी का पैरों पे चढ़ना  
और जाते वक्त पैरों नज़दीक सीपियाँ छोड़ जाना 
मैं फिर दूसरी लहर का इंतज़ार करुँगी 
ताकि वो अपनी सीपियाँ ले जाएँ 
हर चीज़ वहीँ रहे जहाँ के लिए वो बनी है 

लकीरें

लकीरें
हाथों पर, माथे पर
पैरों के तलवे पर
ढलते पानी से उकरती रेत पर
और कहाँ-कहाँ हैं लकीरें?
उलझनों की भाषा है लकीरें
मकड़ी के जाले में मक्खी के साथ फसी हैं लकीरें
पुराने हो चले घर की दीवारों पे चलती हैं लकीरें


शुरुआत

गड्ढे पे गड्ढा
हर गड्ढे के बाद फिर एक गड्ढा
किसने खोदे इतने गड्ढे
किसे मेरी ज़िन्दगी में इतनी दिलचस्पी है
कहीं खुद ज़िन्दगी ने ही तो नहीं
उसे कोई रंज हो मुझसे
मुझे तो है- उससे


पर अगर ये यूँ ही चलता जाए
जो हम तालमेल न बिठा पाएं
तो कैसे जिएंगे साथ- साथ
जो कदमताल न मिला पाएं
तो कैसे कटेगी उम्र पचास

चल ज़िन्दगी, एक कोशिश करें,
साथ जीने की, साथी बनने की
शुरुआत करें
आ हम बात करें, इसी तरह शुरुआत करें


Thursday 22 March 2012

फंतासी कहानी

कभी कभी लगता है
कुछ ठीक नहीं है 
किसी चीज़ में मज़ा नहीं है
कुछ देर लिखूंगी तो सुकून मिलेगा 

चाहती हूँ निरंतर लिखती जाऊं 
रुकों ही न, दम न भरने दूँ इस पेन को
घर के सारे पेन खाली हो जाएँ इतना लिखूं 
हर बात समझ में आ जाए, इतना लिखूं 
हर गाँठ खुल जाए, इतना लिखूं 
बंधेज की चादर सामान हो गयी है ज़िन्दगी 

मन करता है चादर झटक दूँ 
और भाग जाऊं 
फिर कभी किसी चादर से वास्ता न रखूं 
पर यह तो फंतासी कहानियों जैसा होगा 
ज़िन्दगी फंतासी कहानी क्यूँ नहीं हो सकती 
रोकने वाला वही तो है जिससे भाग रही हो 
  
मैं खुद के लिए लिखती हूँ
फिर वो सब के लिए कैसे हो सकता है
और अगर मैं सब के लिए लिखती हूँ 
फिर वो मेरा कैसे हो सकता है 
मैं किस के लिए लिखती हूँ 
मेरा श्रोता कौन है
अक्सर होता यूँ है
मैं लेखक, और मैं ही श्रोता 
होता यूँ भी है
दूसरों के लिखे हुए में भी
मैं थी लेखक और मैं ही श्रोता 

role reversal

बचपन में ऊँगली पकड़ कर
रोड क्रोस करवाती थी वो
इन दिनों अनायास ही
रोड क्रोस करते हुए
मेरा हाथ उनके हाथ
की और बढ़ जाता है

बचपन में वो गौद में लिए
अस्पतालों में ऊपर नीचे चक्कर काटती थी
इन दिनों वो हमारे फ्री होने का इंतज़ार करती हैं

बचपन में जोर ज़बरदस्ती से
हमें दूध, सब्जी खिलाई जाती थी,
आज कल ऐसा इनके साथ होता है

बचपन की बीमारी में वो दवाइयां निकाल के
पानी संग हाथ में थमाती थी
इन दिनों हम ऐसा करते हैं

जिसने हमें दुनिया दिखाई, सिखाई
आज उसी का हम दुनियादारी का पाठ पढ़ा देते हैं

जिसने बोलना, पढना सिखाया
उसे ही कितनी बातों पे टोक देते हैं

बचपन में पूरा दिन काम करती माँ के पीछे पीछे डोला करते थे
इन दिनों काम करते हुए हम आगे रहते हैं और वो ज़रा से पीछे

कैसे हमारे दौर की माएं इतनी आसानी से background  में सरक जाती हैं
हम इतने समझदार कबसे हो गए? माँ इतनी आश्रित कब से हो गयी?
ये role reversal  कब से हो गया ?

माँ अब भी माँ है
हम अब भी बच्चे हैं
caretaking mutual  हो गयी है

खालिस बातें

पेन जादुई है
शब्द चमत्कारी 
खाली पन्ना luxury 
और लिखने को कितना कुछ 

इस दुनिया में जितनी बातें हैं 
सभी लिखी जा सकती हैं 
पन्नो पे उतारी जा सकती हैं 
कब किसकी बारी आये 
किसके ज़रिये आये 

आयें बातें, जितनी आना चाहें
मैं भी तैयार हूँ, जरिया बनने के लिए
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सीधे सीधे चलूँ या फिर वो सीधी रेखा ही उठा कर फ़ेंक दूँ
चुपचाप बात मान लूँ  या फिर कानों में रुई डाल लूँ

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Monday 5 March 2012

भगवन

भगवान् इंसान नहीं है
भगवान् भगवान् है
गर ये इंसान होता
इंसान के ही हाथों पिट पिट के मरा होता
गोली से एक झटके में मारने का क्या मज़ा है
उसे तो पिट पिट के मरना होता

पर भगवान् तो कहानी है
theory है, नाम मात्र है
झूठ है, धोखा है


भगवान् सिर्फ नाम है
इसके पीछे कोई शक्ल, कोई शक्ति नहीं
भगवान्, अल्लाह, परमात्मा
सब नाम है उसके, जो है ही नहीं


मान लो, इस पूरी theory का नाम
भगवान् नहीं, रोबेर्ट रखा गया होता
तो हम कहते, रोबेर्ट सब का रखवाला है
मेरे ज़िन्दगी में सब रोबेर्ट के लिखे अनुसार ही होता है
रोबेर्ट से डरो, वो सब देखता है,
कौन रोबेर्ट?
कौन भगवान्?

जिसका अस्तित्व है, जो विद्यमान है 
वो उसकी और आस लगाये, हाथ जोड़े खड़ा है,
जिसका कोई अस्तित्व ही नही


भगवान् का सृजन इंसान ने किया है, 
न की इसका उल्टा 


अपने-अपने मंदिरों में भगवान् की मूर्तियों की जगह 
मोबाइल, मछरदानी वगेरह रख लो
उसे विधिवत पूजो, आस लगाओ,
अर्जियां डालो महीने भर
अंत में होगा यही, की होगा कुछ नहीं, 
मूर्तियों से भी कहाँ कुछ हुआ था 
मोबाइल, मछरदानी वो काम तो करते हैं
जिसके लिए वो बने हैं







Wednesday 29 February 2012

खालिस बातें

छुप के मिलना यहाँ हमारी कमज़ोरी समझा जाता है
बेइंसाफी सहना सहनशीलता का प्रमाण 

दूसरों के मामले में दखल न देना समझदारी
चाहे दूसरा आपका सगा, खून का ही क्यूँ न हो

औरों की मदद करना अपना वक्त बर्बाद करना है 
अनजान से बात करना महापाप 
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छुपा दो  हमका, बिठा दो हमको, ढक दो हमें , जला दो हमको
ख़तम कर दो किस्सा, जाओ अपने घर
तुम्हारा खुदा तुम्हारी राह देखता होगा 
देखता होगा की तुम आये की नहीं सलामत

भंवर

भंवर
ज़िन्दगी का ऐसा भंवर
की अब जी नहीं चाहता
मेरे हाथ पाक रहे
जिसने ऐसे हालात पे ला खड़ा किया है
उसका क़त्ल अब किसी रात हो ही जाए


उसको जाना तो जाना नफ़रत की हद्द क्या है
वो ख़तम हो तो जानूं
जलते दिल पे ठंडक पड़ना क्या है
रात दिन का सुकून क्या है

भड़ास

कविता कविता होती है
और ज़िन्दगी ज़िन्दगी

ज़िन्दगी कविता नहीं
जो जब चाहा, लिख दिया, जब चाहा, परे धर दिया
जो लिख दिया और निवृत हो गए
लिख दिया और भड़ास निकाल, शांत हो गए

काश ज़िन्दगी भी इतनी सीधी होती 
मेरी ज़िन्दगी अगर इंसान की शक्ल में  कहीं दिखाई दे  
मैं भी अपनी भड़ास निकाल लूँ 

Wednesday 22 February 2012

'उनका' खून

उन्हें लगता है मैं 'उनकी' बेटी हूँ, 'उनका' खून हूँ,
माफ़ करना, पर मेरे पास पैदा होने का कोई और तरीका न था,
आप नहीं होते तो कोई और होता

मेरे अपने बच्चे होंगे, अगर कभी
मैं उन्हें पड़ोस और road के बच्चों से ज्यादा प्यार दूंगी
ज्यादा ख़याल रखूंगी उनका,
उनके खर्चे और नखरे उठाऊंगी


क्यूँ?
बच्चे ख़ुशी देते हैं, जीने का मकसद/बहाना बन जाते हैं,
बच्चों के बिना बड़ा अकेलापन है,
जीवन निरर्थक है
या ये कह लो
की बच्चों का होना कुदरत का तरीका है
संसार की निरंतरता कायम रखने का
बात इतनी है -आपको ख़तम होना है तो किसी और को आना है
फिर उसके भी किसी और को आना है
कुदरत के पास और क्या बेहतर तरीका था,
जीवन को पनपते रहने देने का
नयापन लाते रहने का

बुढा पेड़ मर जाता है
बीज छोड़ जाता है
उसकी जगह कई और छोटे पौधे उग आते हैं
हम तो सिर्फ एक जरिया हैं, माध्यम हैं

ये जो अपने बच्चों को दुखी देखकर, जी भर आता है
उनके होने से हमारी आँखों की चमक बरकरार रहती है
ये भाव जो अपने बच्चों को देखकर उमड़ते हैं
क्या नहीं है ये सब कुदरत का खेल?

इंसान होने और पलने फूलने का जो मौका मुझे मिला है
मुझसे पैदा हुए को भी मिले

इसी तरह, हर बच्चा पैदा हुआ है
कुछ अधिकारों के साथ,वो उसे मिले
चाहे वो मेरा खून न हो,
इंसान का बच्चा है , तो मेरे खून को जो चीज़ें समाज मुहैया कराता है
उसे भी कराये
समाज कभी तो इन्साफ मुहैया कराए





चूहा दौड़, बिल्ली आई

आज मौत पे इतना जो लिखा
तो ख़याल आया की जब मरना ही है
तो chocolates खा के ही क्यूँ न मरुँ?


क्यूँ वो इतने दिनों से घर में रखी हैं  
और मैं उन्हें खा नहीं रही

क्या होगा अगर chocolates खाऊंगी
थोड़ी मोटी हो जओंगी,
क्या होगा अगर थोड़ी मोटी हो जाऊंगी
मनपसंद dresses नहीं पहन पओंगी
कपड़ों की choices कम हो जाएँगी
पतलों की बीच में मोटी कहलाऊंगी
या असल बात अब कह ही दूँ -
मैं मोटी होकर कई लोगों को 
पहले जितनी पसंद नहीं आउंगी 


शुरू हुई guilty , शुरू हुई चूहा दौड़, बिल्ली आई की कहानी
मैं चूहा बन दौडूंगी और बिल्ली बनी सच्चाइयां मेरे पीछे भागेंगी


कभी कभी चूहे को लगेगा बिल्ली दूर है
थोडा सुस्ता लूँ, थोड़ी और chocolates खा लूँ, 
कभी होश आएगा बिल्ली फिर दौड़ पड़ी है मेरे पीछे, 


कभी रुक कर बिल्ली की और गुर्राऊं?
नही, ऐसा मैं नहीं करुँगी 
ये दौड़ तो मुझे जारी रखनी ही पड़ेगी
इस जद्दोजहद का नाम ही तो ज़िन्दगी है. 

यकायक

मैं खफा हूँ रात दिन से
वो मुझ से पूछ कर नहीं आते 
उन्हें पता नहीं किस चीज़ की जल्दी है
मेरी उम्र खाने की तो नही?
किस मिटटी के बने हैं वो
जो थकते भी नही?

यह रात दिन जिसे मैं मासूम समझा करती थी
ये तो कालचक्र निकले
इसने मेरी ऊँगली पकड़ ली है
और दौड़ा रहा है मुझे


ये मुझे मौत के दरवाज़े पे ला के ही दम भरेगा
उस दिन तो ज़रूर कुछ वक्त के लिए थमेगी मेरी ज़िन्दगी
जब महसूस करुँगी सामने खड़ी मौत को
एक लम्बी साँस ज़रूर लुंगी तब
मुझे ऐसे मौत न आये जो कुछ समझने का मौका ही न दे
मुझे यकायक मौत न आये
मैं थोड़ी देर घूरना चाहूंगी मौत को
महसूस करना चाहूंगी उस पल को
कितनी ही चीज़ें अधूरी होंगी
कितनी ही बातें कहनी बाकी


पर मैं मुस्कुराऊँगी, तुम देखना , उस वक्त
जब भी मुझे किसी बात या ख़याल पर मज़ा आता है
मैं यकायक मुस्कुराती हूँ 
उस वक्त मुस्कुराऊँगी मैं !!





चश्मे

हम देखते कितना कुछ
और सोचते कितना कम हैं
सामने वाली हमउम्र शादीशुदा लड़की को देख
मेरे दिमाक में वही ख़याल उसकी ज़िन्दगी को लेकर हर बार आते हैं
वही घिसे पिटे ख़याल जो मैं पहले भी सोच चुकी  हूँ उसके बारे में
क्या मेरे इन 2-4 ख्यालों के अलावा वो और कुछ भी नहीं
यकीनन वो इन चंद ख्यालों की बनी पुतली तो है नही
फिर क्यूँ  उसे मैं हर बार अपनी ही नज़र से देखती हूँ
अपने उन चाँद ख्यालों में लपेटकर


कैसा हो अगर कुदरत नाराज़ होकर
मुझसे मेरी देखने की शक्ति झीन ले
जब मैं कुछ नया सोचती ही नहीं
फिर बार बार देखने का क्या फायदा


सोचती हूँ, हद मार के 27-28  की उम्र के बाद
अगर हमसे हमारी आँखें छीन ली जाएँ
तो बुरा क्या है?
कहाँ इस उम्र के परे हम कुछ नया सोचना और समझना चाहते हैं
सो ले लो यह आँखें, कुछ पहचानना, सीखना अब बाकी न रहा है,
ये अब हमारे किस काम की
हम अपनी ही बनाई परिधि में घुमते रहते हैं
अपना नजरिया, अपनी मानसिकता,
अपनी धारणाएं, अपनी संकीर्णताएँ
के चश्मे लगा बैठे हैं हम




Tuesday 21 February 2012

बदलाव

अन्दर बैठ कर खिड़की से
हवा की ताल पर झूमते पेड़ों को देखना
भरी दोपहरी में चिड़ियों की चहचहाट सुनना 
ऊपर छत पर सुख रहे
साबूदाने की चिप्स पलटने जाना 
नीचे आकर कुलर की हवा खाना 
किस्मत अच्छी हो तो रूहअफज़ा का लुफ्त उठाना 
यूँ पसंद है मुझे गर्मी की छुट्टियां 
यूँ पसंद है मुझे गर्मी की छुट्टियां 


लाइट जाने पे  हाथ पंखों से हवा करना
चने भुग्ड़े चाट बना कर खाना 
सोफ्टी वाले भैया की ३ बजे राह देखना 
उससे और चेर्री डालने की जिद करना

और कितना हसीन था वो दोपहर में सुस्ताना 
5 बजने पर चाय बनाना 
रोज़ शाम लॉन और पेड़ों में पानी देना
महोल्ले की औरतों का घर में जमावट 
वो रतजगा, वो गीत
वो मस्ती, वो अल्हड़पन 
मेरे बच्चे भी यूँ गर्मी की छुट्टियाँ बिताएंगे 
शक है मुझे 
कभी रुकेंगे ये बदलाव 
शक है मुझे 

diary

diary  अपनी और खींचती है
जब आप उसे छोड़ के जाते हैं
और जब तक वापस आते हैं
इस अंतराल में
कुछ चैन से नहीं करने देती

सब्जी काटते वक्त, चावल पकाते वक्त, उसे बेस्वाद खाते वक्त
जाने किस चीज़ की जल्दी रहती है diary को
क्यूंकि अब जब वापस आ कर
बेहोशी भरी तीव्र गति से
पेन उठा चुकी  हूँ
कुछ भी तो नहीं लिख पा रही हूँ

मेरे दिमाक के काउंटर पर
कोई सुयोजित कतार नहीं है
बातें, चाहतें, ख़याल यूँ ही इर्द गिर्द खड़े हैं
कब किसकी पन्नों पे उतरने की बारी आये कुछ पता नहीं
कब क्या लिखूंगी अंदाजा नहीं

सोचती हूँ कितना ही लिख लूँ
कितना कुछ है जो छुट जाएगा
जिसकी बारी कभी नहीं आएगी
और जो लिखूंगी वो कहाँ अपने आप में पूरा होगा
उसका भी कुछ न कुछ हिस्सा हमेशा बच ही जायेगा




फुर्सत

फुर्सत
कहाँ हाथ में खुद आती है
फुर्सत 
कहाँ टेबल पे रखी पाई जाती है
-मर्दों के लिए रखे चाय के प्यालों की तरह
टेबल पे तो हमें धुल मिलती है
उसे साफ़ करें तो कहीं और मिलती है
ऐसे में फुर्सत कहाँ मिलती है

फुर्सत को भी priority बनाना पड़ता है
तब मिलती है
अँधा होना पड़ता है, धुल , अस्त-व्यस्तता के प्रति 
तब मिलती है
थोड़े से तानो के लिए दिल को कड़ा बनाना पड़ता है 
तब मिलती है

या तो मैं अच्छी गृहणी बन सकती हूँ 
या फुर्सत से जी सकती हूँ 

जिसका डर था 
वह रोग मुझे लग चूका है
सफाई के प्रति दीवानगी का
मैं पूरा दिन घर साफ़ कर सकती हूँ

इसीलिए मुझे घर बनाना पसंद नहीं 
बड़े घर बनाना तो बिलकुल नहीं
उनने बड़े-बड़े घर बनाये मोहल्ले में शान के लिए
हमारी उम्र बीत गयी उस शान को साफ़ रखने में

और कुछ ऐसे भी होते हैं 
जो रात को घर आकर बीवी से कहते हैं
की क्या करती हो पूरे दिन

सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है
यकीन मानिये आपके इस घर में 
हर रोज़ नयी धुल और नयी  अस्त-व्यस्तता दिखाई देती है

फुर्सत को दोनों हाथों से खींच कर गले लगा लो
उसे बुढापे के बिस्तर के लिए न छोड़ो
उस वक्त बहु के ताने ही बहुत होंगे
और अगर खुशकिस्मत हुए 
तो घर में फैला अकेलापन
चादर पे साथ लेटा अकेलापन
cupboard से झांकता अकेलापन

चाहो तो हर पल फुर्सत है
चाहो तो ताउम्र नहीं मिलेगी
ढूँढो तो हर पल फुर्सत है

अब जब उम्र है, वक्त है
अपना लो उसे
सीने से लगा लो उसे 





Sunday 12 February 2012

दीवारें सुनती हैं सब


दीवारें सुनती हैं सब 
हमारी बातें, हमारी फुसफुसाहटें

दीवारें सुनती हैं वो सब 
जो हम बतियाते नहीं
दीवारें सुनती हैं वो भी 
जो हम छुपाते हैं
अक्सर खुद से, तो कभी दूसरों से


दीवारें सुनती हैं सब 
जो हम दिन में नहीं बोलते,
रातों को पड़े बिस्तर पर नहीं सोचते

दीवारों को याद है वो बातें 
जो मैंने उसे कहनी चाही
पर कभी दिल तो कभी मुह में दबा ली 

दीवारों को याद है कई रातें
कई रातों में कही हुई कई बातें
कभी खुद से किये हुए वादे
जो अब भूलने सी लगी हूँ मैं

दीवारें पूछती नहीं 
पर सुनती हैं सब
हम बतातें जो हैं

Monday 6 February 2012

gloomy :)

दुखता है मुझे दुःख, दिखता कभी नहीं  
कभी दिखे तो हाथ में पकड़
दूर फ़ेंक आऊँगी

भाव हैं मेरे पास, शब्द नहीं मिलते
जिस दिन मिलेंगे गले में खड़े किये बाँध खोल दूंगी 

कलम है, किताब भी है मेरे पास 
पर हर शाम पन्ने नहीं भरते 
बातें जब गले में आ खड़ी होंगी 
पन्नों पर भी छाप दे जायेगी

गम भी है और वक्त भी
पर आंसू नहीं गिरते
इन्ही आंसुओं की राह तकते तकते
अपनी ticket  कट जायेगी 

चोरी

कल सवेरे से ही मेरा कुछ चुराने का जी था
मैंने सूरज से पूछा, वो बोला
सर्दी बहुत है
फरवरी लगने से पहले मैं ऐसा सोचूं भी ना

मैंने दिन काटा एक आस के साथ
शाम घिरी और पूछी चाँद से वही बात
चाँद बडबडाया की आज है करवा चौथ
और करोड़ों सुहागिनों की बददुआ लेना
उसके लिए होगी मौत

इस बार ज़रा डरते हुए कैलेंडर से मैंने पूछा
अगला महीना चुरा लूँ मैं?
तर्क मिला फरवरी तो वैसे ही कमज़ोर जान है
हर चार साल बाद एक-एक दिन के लिए लड़ भिड़ती है
वो कहाँ मानेगी ऐसे में मेरी बात

( to be contd....)

आसमानी लड़ाई

पतंगें तो बस शिकार होती हैं
असल लड़ाई तो नीचे ज़मीन पे होती है

आज शाम देखा दो पतंगे आसमान में तनी थी
कुछ दूरी बनाए खड़ी थी
शायद अपनी-अपनी उड़ानों में मस्त थी
फिर कहाँ से एक पतंग आक्रामक हो गयी
और दूसरी पे धावा बोलने लगी
दूसरी हर बार दूर भागती
जब-जब पहली लड़ने करीब आती
बात साफ़ थी-
पहली पतंग लड़ाई को आमदा थी
जबकि दूसरी तो आज सिर्फ घूमने निकली थी

यह उड़ान दूसरी की आखिरी उड़ान निकली
जब पहली ने झट से डोर काट
उसे आसमान से रफा दफा कर दिया
पहली पतंग विजय ध्वनि करती हुई
आसमान में इधर उधर इठलाई
पर कुछ ही देर में उसे महसूस हो गया
अब न उसे कोई देखने वाला रहा
न साथ लड़ने वाला
उसे याद आया वो तो सिर्फ दो ही थी आसमान में

काफी देर अकेले बोर होने के बाद
वह पतंग नीचे खींच ली गई



आसमानों की पतंग

पतंगों को भाता है आसमान 
पतंगों को चाहिए बस आसमान 
उसे नापसंद है तुम्हारी छत, मेरी छत 

पतंगे नहीं चाहती तांड पर बैठकर 
करना इंतज़ार अगली सक्रांत का 
न ही वो चाहती हैं पेड़ों में फसना 
क्यूँकि फिर शुरू होता है इंतज़ार 
बारिशों का 

पतंगे तो आसमान के लिए बनी हैं 
उस एक दिन के लिए बनी हैं
जब बच्चे गली गली उसके पीछे भागते हैं
उस एक दिन जब आसमान सिर्फ उसका होता है 
और परिंदे वहां पर भी नहीं मारते हैं 



Friday 6 January 2012

बादलों की औकात


सर्दियों के दिन आए
तो पता चली हमें, बादलों की औकात
बादलों की औकात-
जो धूप का इक कतरा भी ज़मीन पर नहीं पड़ने देती

करमी सूरज भी दिन भर मगजमारी करता है
नयी-नयी रणनीतियां बनाकर
नयी नयी जगह अपनाकर
बादलों की चादर भेदने में लगा रहता है
और हम धरावासी ललचाई आँखों से
सूरज को ताकते हैं, कोसते हैं

आज ऐसा ही ऐतेहासिक दिन है जब हम
पुरे दिन सूरज और बादल की
वर्चस्व की लड़ाई देखेंगे
और कपकपाती हुई आवाज़ और ठन्डे पड़ते हाथों से सूरज की side लेंगे
आज हमने और सूरज ने जानी
बादलों की औकात



Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...