Saturday 21 July 2012

डर लगता है ज़िन्दगी मात दे देगी 
यहीं कहीं उलझी रहती हूँ 
फिर कभी एकदम से याद आता है, डर हावी होता है 

उलझना है तो उससे उलझूं 
गिडगिडाना है तो उसके सामने गिडगिडाऊँ 
ललकारना है तो उसे ललकारूं 

ज़िन्दगी- ये कहानी तेरी और मेरी है 

ये झगडा तेरा और मेरा है 
ये खुशगवार मौसम तेरे और मेरे बीच के हैं 
बाकी सब आने जाने हैं, मेहमान हैं 
मैं बाकियों में पड़ कर तुझे नही भूलना चाहती 
मुझे डर है तू मात न दे जाए 



Monday 16 July 2012

हाथों की लकीरों पे तकदीर लिखी होती है ?
तो पैरों की पे क्यूँ नही ?
क्यूँ तकदीर लिखने वाले ने उसे हाथ पे ही छापना ठीक समझा 
या यूँ हुआ, पहले पहल समझने वाले को,
हाथ हाथ में ले कर, पकड़ना अच्छा लगा , पैर पकड़ने से 

माथे की लकीरें भी कुछ कहती हैं?
रेत इंसान होती तो रेत की लकीरें भी भाग्य बताती 
कुछ अपना, कुछ उनका जो उस के सीने को सहला के गए हैं 

रेत के भी अपने तरीकें होते हैं , वो मालूम नही होने देती
मुझसे पहले कितने उस पे चल के गए हैं 
मैं एक बार रेत पे गयी थी मेरा कुछ हिस्सा आज भी वहां है 

Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...