Wednesday 29 February 2012

खालिस बातें

छुप के मिलना यहाँ हमारी कमज़ोरी समझा जाता है
बेइंसाफी सहना सहनशीलता का प्रमाण 

दूसरों के मामले में दखल न देना समझदारी
चाहे दूसरा आपका सगा, खून का ही क्यूँ न हो

औरों की मदद करना अपना वक्त बर्बाद करना है 
अनजान से बात करना महापाप 
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छुपा दो  हमका, बिठा दो हमको, ढक दो हमें , जला दो हमको
ख़तम कर दो किस्सा, जाओ अपने घर
तुम्हारा खुदा तुम्हारी राह देखता होगा 
देखता होगा की तुम आये की नहीं सलामत

भंवर

भंवर
ज़िन्दगी का ऐसा भंवर
की अब जी नहीं चाहता
मेरे हाथ पाक रहे
जिसने ऐसे हालात पे ला खड़ा किया है
उसका क़त्ल अब किसी रात हो ही जाए


उसको जाना तो जाना नफ़रत की हद्द क्या है
वो ख़तम हो तो जानूं
जलते दिल पे ठंडक पड़ना क्या है
रात दिन का सुकून क्या है

भड़ास

कविता कविता होती है
और ज़िन्दगी ज़िन्दगी

ज़िन्दगी कविता नहीं
जो जब चाहा, लिख दिया, जब चाहा, परे धर दिया
जो लिख दिया और निवृत हो गए
लिख दिया और भड़ास निकाल, शांत हो गए

काश ज़िन्दगी भी इतनी सीधी होती 
मेरी ज़िन्दगी अगर इंसान की शक्ल में  कहीं दिखाई दे  
मैं भी अपनी भड़ास निकाल लूँ 

Wednesday 22 February 2012

'उनका' खून

उन्हें लगता है मैं 'उनकी' बेटी हूँ, 'उनका' खून हूँ,
माफ़ करना, पर मेरे पास पैदा होने का कोई और तरीका न था,
आप नहीं होते तो कोई और होता

मेरे अपने बच्चे होंगे, अगर कभी
मैं उन्हें पड़ोस और road के बच्चों से ज्यादा प्यार दूंगी
ज्यादा ख़याल रखूंगी उनका,
उनके खर्चे और नखरे उठाऊंगी


क्यूँ?
बच्चे ख़ुशी देते हैं, जीने का मकसद/बहाना बन जाते हैं,
बच्चों के बिना बड़ा अकेलापन है,
जीवन निरर्थक है
या ये कह लो
की बच्चों का होना कुदरत का तरीका है
संसार की निरंतरता कायम रखने का
बात इतनी है -आपको ख़तम होना है तो किसी और को आना है
फिर उसके भी किसी और को आना है
कुदरत के पास और क्या बेहतर तरीका था,
जीवन को पनपते रहने देने का
नयापन लाते रहने का

बुढा पेड़ मर जाता है
बीज छोड़ जाता है
उसकी जगह कई और छोटे पौधे उग आते हैं
हम तो सिर्फ एक जरिया हैं, माध्यम हैं

ये जो अपने बच्चों को दुखी देखकर, जी भर आता है
उनके होने से हमारी आँखों की चमक बरकरार रहती है
ये भाव जो अपने बच्चों को देखकर उमड़ते हैं
क्या नहीं है ये सब कुदरत का खेल?

इंसान होने और पलने फूलने का जो मौका मुझे मिला है
मुझसे पैदा हुए को भी मिले

इसी तरह, हर बच्चा पैदा हुआ है
कुछ अधिकारों के साथ,वो उसे मिले
चाहे वो मेरा खून न हो,
इंसान का बच्चा है , तो मेरे खून को जो चीज़ें समाज मुहैया कराता है
उसे भी कराये
समाज कभी तो इन्साफ मुहैया कराए





चूहा दौड़, बिल्ली आई

आज मौत पे इतना जो लिखा
तो ख़याल आया की जब मरना ही है
तो chocolates खा के ही क्यूँ न मरुँ?


क्यूँ वो इतने दिनों से घर में रखी हैं  
और मैं उन्हें खा नहीं रही

क्या होगा अगर chocolates खाऊंगी
थोड़ी मोटी हो जओंगी,
क्या होगा अगर थोड़ी मोटी हो जाऊंगी
मनपसंद dresses नहीं पहन पओंगी
कपड़ों की choices कम हो जाएँगी
पतलों की बीच में मोटी कहलाऊंगी
या असल बात अब कह ही दूँ -
मैं मोटी होकर कई लोगों को 
पहले जितनी पसंद नहीं आउंगी 


शुरू हुई guilty , शुरू हुई चूहा दौड़, बिल्ली आई की कहानी
मैं चूहा बन दौडूंगी और बिल्ली बनी सच्चाइयां मेरे पीछे भागेंगी


कभी कभी चूहे को लगेगा बिल्ली दूर है
थोडा सुस्ता लूँ, थोड़ी और chocolates खा लूँ, 
कभी होश आएगा बिल्ली फिर दौड़ पड़ी है मेरे पीछे, 


कभी रुक कर बिल्ली की और गुर्राऊं?
नही, ऐसा मैं नहीं करुँगी 
ये दौड़ तो मुझे जारी रखनी ही पड़ेगी
इस जद्दोजहद का नाम ही तो ज़िन्दगी है. 

यकायक

मैं खफा हूँ रात दिन से
वो मुझ से पूछ कर नहीं आते 
उन्हें पता नहीं किस चीज़ की जल्दी है
मेरी उम्र खाने की तो नही?
किस मिटटी के बने हैं वो
जो थकते भी नही?

यह रात दिन जिसे मैं मासूम समझा करती थी
ये तो कालचक्र निकले
इसने मेरी ऊँगली पकड़ ली है
और दौड़ा रहा है मुझे


ये मुझे मौत के दरवाज़े पे ला के ही दम भरेगा
उस दिन तो ज़रूर कुछ वक्त के लिए थमेगी मेरी ज़िन्दगी
जब महसूस करुँगी सामने खड़ी मौत को
एक लम्बी साँस ज़रूर लुंगी तब
मुझे ऐसे मौत न आये जो कुछ समझने का मौका ही न दे
मुझे यकायक मौत न आये
मैं थोड़ी देर घूरना चाहूंगी मौत को
महसूस करना चाहूंगी उस पल को
कितनी ही चीज़ें अधूरी होंगी
कितनी ही बातें कहनी बाकी


पर मैं मुस्कुराऊँगी, तुम देखना , उस वक्त
जब भी मुझे किसी बात या ख़याल पर मज़ा आता है
मैं यकायक मुस्कुराती हूँ 
उस वक्त मुस्कुराऊँगी मैं !!





चश्मे

हम देखते कितना कुछ
और सोचते कितना कम हैं
सामने वाली हमउम्र शादीशुदा लड़की को देख
मेरे दिमाक में वही ख़याल उसकी ज़िन्दगी को लेकर हर बार आते हैं
वही घिसे पिटे ख़याल जो मैं पहले भी सोच चुकी  हूँ उसके बारे में
क्या मेरे इन 2-4 ख्यालों के अलावा वो और कुछ भी नहीं
यकीनन वो इन चंद ख्यालों की बनी पुतली तो है नही
फिर क्यूँ  उसे मैं हर बार अपनी ही नज़र से देखती हूँ
अपने उन चाँद ख्यालों में लपेटकर


कैसा हो अगर कुदरत नाराज़ होकर
मुझसे मेरी देखने की शक्ति झीन ले
जब मैं कुछ नया सोचती ही नहीं
फिर बार बार देखने का क्या फायदा


सोचती हूँ, हद मार के 27-28  की उम्र के बाद
अगर हमसे हमारी आँखें छीन ली जाएँ
तो बुरा क्या है?
कहाँ इस उम्र के परे हम कुछ नया सोचना और समझना चाहते हैं
सो ले लो यह आँखें, कुछ पहचानना, सीखना अब बाकी न रहा है,
ये अब हमारे किस काम की
हम अपनी ही बनाई परिधि में घुमते रहते हैं
अपना नजरिया, अपनी मानसिकता,
अपनी धारणाएं, अपनी संकीर्णताएँ
के चश्मे लगा बैठे हैं हम




Tuesday 21 February 2012

बदलाव

अन्दर बैठ कर खिड़की से
हवा की ताल पर झूमते पेड़ों को देखना
भरी दोपहरी में चिड़ियों की चहचहाट सुनना 
ऊपर छत पर सुख रहे
साबूदाने की चिप्स पलटने जाना 
नीचे आकर कुलर की हवा खाना 
किस्मत अच्छी हो तो रूहअफज़ा का लुफ्त उठाना 
यूँ पसंद है मुझे गर्मी की छुट्टियां 
यूँ पसंद है मुझे गर्मी की छुट्टियां 


लाइट जाने पे  हाथ पंखों से हवा करना
चने भुग्ड़े चाट बना कर खाना 
सोफ्टी वाले भैया की ३ बजे राह देखना 
उससे और चेर्री डालने की जिद करना

और कितना हसीन था वो दोपहर में सुस्ताना 
5 बजने पर चाय बनाना 
रोज़ शाम लॉन और पेड़ों में पानी देना
महोल्ले की औरतों का घर में जमावट 
वो रतजगा, वो गीत
वो मस्ती, वो अल्हड़पन 
मेरे बच्चे भी यूँ गर्मी की छुट्टियाँ बिताएंगे 
शक है मुझे 
कभी रुकेंगे ये बदलाव 
शक है मुझे 

diary

diary  अपनी और खींचती है
जब आप उसे छोड़ के जाते हैं
और जब तक वापस आते हैं
इस अंतराल में
कुछ चैन से नहीं करने देती

सब्जी काटते वक्त, चावल पकाते वक्त, उसे बेस्वाद खाते वक्त
जाने किस चीज़ की जल्दी रहती है diary को
क्यूंकि अब जब वापस आ कर
बेहोशी भरी तीव्र गति से
पेन उठा चुकी  हूँ
कुछ भी तो नहीं लिख पा रही हूँ

मेरे दिमाक के काउंटर पर
कोई सुयोजित कतार नहीं है
बातें, चाहतें, ख़याल यूँ ही इर्द गिर्द खड़े हैं
कब किसकी पन्नों पे उतरने की बारी आये कुछ पता नहीं
कब क्या लिखूंगी अंदाजा नहीं

सोचती हूँ कितना ही लिख लूँ
कितना कुछ है जो छुट जाएगा
जिसकी बारी कभी नहीं आएगी
और जो लिखूंगी वो कहाँ अपने आप में पूरा होगा
उसका भी कुछ न कुछ हिस्सा हमेशा बच ही जायेगा




फुर्सत

फुर्सत
कहाँ हाथ में खुद आती है
फुर्सत 
कहाँ टेबल पे रखी पाई जाती है
-मर्दों के लिए रखे चाय के प्यालों की तरह
टेबल पे तो हमें धुल मिलती है
उसे साफ़ करें तो कहीं और मिलती है
ऐसे में फुर्सत कहाँ मिलती है

फुर्सत को भी priority बनाना पड़ता है
तब मिलती है
अँधा होना पड़ता है, धुल , अस्त-व्यस्तता के प्रति 
तब मिलती है
थोड़े से तानो के लिए दिल को कड़ा बनाना पड़ता है 
तब मिलती है

या तो मैं अच्छी गृहणी बन सकती हूँ 
या फुर्सत से जी सकती हूँ 

जिसका डर था 
वह रोग मुझे लग चूका है
सफाई के प्रति दीवानगी का
मैं पूरा दिन घर साफ़ कर सकती हूँ

इसीलिए मुझे घर बनाना पसंद नहीं 
बड़े घर बनाना तो बिलकुल नहीं
उनने बड़े-बड़े घर बनाये मोहल्ले में शान के लिए
हमारी उम्र बीत गयी उस शान को साफ़ रखने में

और कुछ ऐसे भी होते हैं 
जो रात को घर आकर बीवी से कहते हैं
की क्या करती हो पूरे दिन

सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है
यकीन मानिये आपके इस घर में 
हर रोज़ नयी धुल और नयी  अस्त-व्यस्तता दिखाई देती है

फुर्सत को दोनों हाथों से खींच कर गले लगा लो
उसे बुढापे के बिस्तर के लिए न छोड़ो
उस वक्त बहु के ताने ही बहुत होंगे
और अगर खुशकिस्मत हुए 
तो घर में फैला अकेलापन
चादर पे साथ लेटा अकेलापन
cupboard से झांकता अकेलापन

चाहो तो हर पल फुर्सत है
चाहो तो ताउम्र नहीं मिलेगी
ढूँढो तो हर पल फुर्सत है

अब जब उम्र है, वक्त है
अपना लो उसे
सीने से लगा लो उसे 





Sunday 12 February 2012

दीवारें सुनती हैं सब


दीवारें सुनती हैं सब 
हमारी बातें, हमारी फुसफुसाहटें

दीवारें सुनती हैं वो सब 
जो हम बतियाते नहीं
दीवारें सुनती हैं वो भी 
जो हम छुपाते हैं
अक्सर खुद से, तो कभी दूसरों से


दीवारें सुनती हैं सब 
जो हम दिन में नहीं बोलते,
रातों को पड़े बिस्तर पर नहीं सोचते

दीवारों को याद है वो बातें 
जो मैंने उसे कहनी चाही
पर कभी दिल तो कभी मुह में दबा ली 

दीवारों को याद है कई रातें
कई रातों में कही हुई कई बातें
कभी खुद से किये हुए वादे
जो अब भूलने सी लगी हूँ मैं

दीवारें पूछती नहीं 
पर सुनती हैं सब
हम बतातें जो हैं

Monday 6 February 2012

gloomy :)

दुखता है मुझे दुःख, दिखता कभी नहीं  
कभी दिखे तो हाथ में पकड़
दूर फ़ेंक आऊँगी

भाव हैं मेरे पास, शब्द नहीं मिलते
जिस दिन मिलेंगे गले में खड़े किये बाँध खोल दूंगी 

कलम है, किताब भी है मेरे पास 
पर हर शाम पन्ने नहीं भरते 
बातें जब गले में आ खड़ी होंगी 
पन्नों पर भी छाप दे जायेगी

गम भी है और वक्त भी
पर आंसू नहीं गिरते
इन्ही आंसुओं की राह तकते तकते
अपनी ticket  कट जायेगी 

चोरी

कल सवेरे से ही मेरा कुछ चुराने का जी था
मैंने सूरज से पूछा, वो बोला
सर्दी बहुत है
फरवरी लगने से पहले मैं ऐसा सोचूं भी ना

मैंने दिन काटा एक आस के साथ
शाम घिरी और पूछी चाँद से वही बात
चाँद बडबडाया की आज है करवा चौथ
और करोड़ों सुहागिनों की बददुआ लेना
उसके लिए होगी मौत

इस बार ज़रा डरते हुए कैलेंडर से मैंने पूछा
अगला महीना चुरा लूँ मैं?
तर्क मिला फरवरी तो वैसे ही कमज़ोर जान है
हर चार साल बाद एक-एक दिन के लिए लड़ भिड़ती है
वो कहाँ मानेगी ऐसे में मेरी बात

( to be contd....)

आसमानी लड़ाई

पतंगें तो बस शिकार होती हैं
असल लड़ाई तो नीचे ज़मीन पे होती है

आज शाम देखा दो पतंगे आसमान में तनी थी
कुछ दूरी बनाए खड़ी थी
शायद अपनी-अपनी उड़ानों में मस्त थी
फिर कहाँ से एक पतंग आक्रामक हो गयी
और दूसरी पे धावा बोलने लगी
दूसरी हर बार दूर भागती
जब-जब पहली लड़ने करीब आती
बात साफ़ थी-
पहली पतंग लड़ाई को आमदा थी
जबकि दूसरी तो आज सिर्फ घूमने निकली थी

यह उड़ान दूसरी की आखिरी उड़ान निकली
जब पहली ने झट से डोर काट
उसे आसमान से रफा दफा कर दिया
पहली पतंग विजय ध्वनि करती हुई
आसमान में इधर उधर इठलाई
पर कुछ ही देर में उसे महसूस हो गया
अब न उसे कोई देखने वाला रहा
न साथ लड़ने वाला
उसे याद आया वो तो सिर्फ दो ही थी आसमान में

काफी देर अकेले बोर होने के बाद
वह पतंग नीचे खींच ली गई



आसमानों की पतंग

पतंगों को भाता है आसमान 
पतंगों को चाहिए बस आसमान 
उसे नापसंद है तुम्हारी छत, मेरी छत 

पतंगे नहीं चाहती तांड पर बैठकर 
करना इंतज़ार अगली सक्रांत का 
न ही वो चाहती हैं पेड़ों में फसना 
क्यूँकि फिर शुरू होता है इंतज़ार 
बारिशों का 

पतंगे तो आसमान के लिए बनी हैं 
उस एक दिन के लिए बनी हैं
जब बच्चे गली गली उसके पीछे भागते हैं
उस एक दिन जब आसमान सिर्फ उसका होता है 
और परिंदे वहां पर भी नहीं मारते हैं 



Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...