Tuesday 27 March 2012

रेत

रेत पे चलना इतना सुकूनदेह क्यूँ होता है
पैरों तले वो गीली मिटटी का एहसास  
वो कदम रखने पर पैरों का धसना ज़मीन पे 

मुझे पसंद है समुन्दर की तरफ मुंह करके खड़े हो जाना 
उसे निहारना जो अंतहीन लगता है
उसे निहारना जो अंत लगता है 
वो शून्यता, वो विचारहीनता, जिससे मैं भर जाती हूँ
वहां आके जैसे सब ठिटक जाता है, बेमानी जान पड़ता है 
जैसे मौत खड़ी हो सामने, जैसे मैं मौत को निहार रही हूँ

एक दिन मुझे भी वहीँ जाके मिल जाना है, जहाँ से मैं आई हूँ 
पर इस सुकून का इक कतरा अपने साथ ले जाना चाहती हूँ 
आज के लिए, 
तब तक के लिए जब तक मैं फिर यहाँ लौट के ना आऊं 
फिर इस पानी को ना निहारूं 

वो लहरों का तेज़ी से मेरी और बढ़ना 
वो पानी का पैरों पे चढ़ना  
और जाते वक्त पैरों नज़दीक सीपियाँ छोड़ जाना 
मैं फिर दूसरी लहर का इंतज़ार करुँगी 
ताकि वो अपनी सीपियाँ ले जाएँ 
हर चीज़ वहीँ रहे जहाँ के लिए वो बनी है 

21 comments:

  1. अति सुन्दर बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति...
    सार्थक
    दिनेश पारीक
    मेरी नई रचना
    कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: माँ की वजह से ही है आपका वजूद:
    http://vangaydinesh.blogspot.com/2012/03/blog-post_15.html?spref=bl

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  2. कल 30/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. हर चीज़ वहीँ रहे जहाँ के लिए वो बनी है….
    खूबसूरत एहसासात से भरी रचना...
    हार्दिक बधाई

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  4. बहुत सुन्दर..

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  5. bahut pyaare ehsaas aapke blog par pahli baar aai hoon trapti aapki pyaari si rachna bahut bhaai vajah bhi batati hoon samudra ki lahron se baate karna uski aaj ko sunna mujhe bahut achcha lagta hai uske upar kafi kuch likh chuki hoon....aaj sab tarotaja ho gaya.mere blog par bhi aapka swagat hai.

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    1. :)padne ke liye aapka shukriya, aur mujhe khushi hai aapko pasand aayi..

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  6. वाह..बेहद खूबसूरत रचना..!!

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  7. सुन्दर .....समुद्र के किनारे जीवन बीता ....इसलिए हर भाव को बखूबी समझ सकती हूँ.....सुन्दर चित्रण !

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  8. waah behad sundr rachna . badhai .

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Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...