लकीरें
हाथों पर, माथे पर
पैरों के तलवे पर
ढलते पानी से उकरती रेत पर
और कहाँ-कहाँ हैं लकीरें?
उलझनों की भाषा है लकीरें
मकड़ी के जाले में मक्खी के साथ फसी हैं लकीरें
पुराने हो चले घर की दीवारों पे चलती हैं लकीरें
हाथों पर, माथे पर
पैरों के तलवे पर
ढलते पानी से उकरती रेत पर
और कहाँ-कहाँ हैं लकीरें?
उलझनों की भाषा है लकीरें
मकड़ी के जाले में मक्खी के साथ फसी हैं लकीरें
पुराने हो चले घर की दीवारों पे चलती हैं लकीरें
वाह!
ReplyDeleteसादर
:) shukriya
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ReplyDelete♥
लकीरें ही लकीरें …
वाह !
तृप्ति जी
नमस्कार !
आपकी कविता से कतील शिफ़ाई की एक ग़ज़ल की याद हो आई …
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूं तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यारे
तू दबे पांव कभी आ के चुरा ले मुझको
:)
*दुर्गा अष्टमी* और *राम नवमी*
सहित
~*~नवरात्रि और नव संवत्सर की बधाइयां शुभकामनाएं !~*~
- राजेन्द्र स्वर्णकार
लकीरें तय करती हैं हद ! चाहे वह किस्मत हो या फिर देश ! लकीरें हम ही खींचते हैं !
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