Friday, 30 March 2012

खालिस बातें


आधी रोटी आसमान में चमक रही है
ऐसा उछ्लूं, लपक के छू लूँ
भींच कर मुट्ठी में, छुपा लूँ जेबों में

साथ में दो चार जुगनूं भी ले आऊं
एक नया तारामंडल बनाऊं, जेबों में


औरत है कविता


कविता औरत है
बेबस, बेसहाय, प्रशंसा की प्यासी
बात बात पे हाशियों पे रख दी जाने वाली
ताउम्र मान न पाने वाली
खिलोनों की तरह पढ़ी जाने वाली
बाजारों की तर्ज़ पर मुशायरों/ब्लोग्स में नुमाइश लगाने वाली
चुचाप अपनी बारी का इंतज़ार करने वाली
उनके अहम् की प्यास बुझाने वास्ते बनने, मिटने वाली
झूटी शान के चलते इस्तेमाल की जाने वाली
जब चाहा छिटक के दूर कर दी जाने वाली

उसे आदत है बार बार छल्ली होने की
उसे आदत है फिर से सज के बैठ जाने की
कविता को नहीं पता उसकी परिसीमा क्या है
जितना लिखोगे, बढती जायेगी,
खिचती जायेगी, मरती जायेगी
बेबस लाचार कविता
औरत है कविता

Tuesday, 27 March 2012

रेत

रेत पे चलना इतना सुकूनदेह क्यूँ होता है
पैरों तले वो गीली मिटटी का एहसास  
वो कदम रखने पर पैरों का धसना ज़मीन पे 

मुझे पसंद है समुन्दर की तरफ मुंह करके खड़े हो जाना 
उसे निहारना जो अंतहीन लगता है
उसे निहारना जो अंत लगता है 
वो शून्यता, वो विचारहीनता, जिससे मैं भर जाती हूँ
वहां आके जैसे सब ठिटक जाता है, बेमानी जान पड़ता है 
जैसे मौत खड़ी हो सामने, जैसे मैं मौत को निहार रही हूँ

एक दिन मुझे भी वहीँ जाके मिल जाना है, जहाँ से मैं आई हूँ 
पर इस सुकून का इक कतरा अपने साथ ले जाना चाहती हूँ 
आज के लिए, 
तब तक के लिए जब तक मैं फिर यहाँ लौट के ना आऊं 
फिर इस पानी को ना निहारूं 

वो लहरों का तेज़ी से मेरी और बढ़ना 
वो पानी का पैरों पे चढ़ना  
और जाते वक्त पैरों नज़दीक सीपियाँ छोड़ जाना 
मैं फिर दूसरी लहर का इंतज़ार करुँगी 
ताकि वो अपनी सीपियाँ ले जाएँ 
हर चीज़ वहीँ रहे जहाँ के लिए वो बनी है 

लकीरें

लकीरें
हाथों पर, माथे पर
पैरों के तलवे पर
ढलते पानी से उकरती रेत पर
और कहाँ-कहाँ हैं लकीरें?
उलझनों की भाषा है लकीरें
मकड़ी के जाले में मक्खी के साथ फसी हैं लकीरें
पुराने हो चले घर की दीवारों पे चलती हैं लकीरें


शुरुआत

गड्ढे पे गड्ढा
हर गड्ढे के बाद फिर एक गड्ढा
किसने खोदे इतने गड्ढे
किसे मेरी ज़िन्दगी में इतनी दिलचस्पी है
कहीं खुद ज़िन्दगी ने ही तो नहीं
उसे कोई रंज हो मुझसे
मुझे तो है- उससे


पर अगर ये यूँ ही चलता जाए
जो हम तालमेल न बिठा पाएं
तो कैसे जिएंगे साथ- साथ
जो कदमताल न मिला पाएं
तो कैसे कटेगी उम्र पचास

चल ज़िन्दगी, एक कोशिश करें,
साथ जीने की, साथी बनने की
शुरुआत करें
आ हम बात करें, इसी तरह शुरुआत करें


Thursday, 22 March 2012

फंतासी कहानी

कभी कभी लगता है
कुछ ठीक नहीं है 
किसी चीज़ में मज़ा नहीं है
कुछ देर लिखूंगी तो सुकून मिलेगा 

चाहती हूँ निरंतर लिखती जाऊं 
रुकों ही न, दम न भरने दूँ इस पेन को
घर के सारे पेन खाली हो जाएँ इतना लिखूं 
हर बात समझ में आ जाए, इतना लिखूं 
हर गाँठ खुल जाए, इतना लिखूं 
बंधेज की चादर सामान हो गयी है ज़िन्दगी 

मन करता है चादर झटक दूँ 
और भाग जाऊं 
फिर कभी किसी चादर से वास्ता न रखूं 
पर यह तो फंतासी कहानियों जैसा होगा 
ज़िन्दगी फंतासी कहानी क्यूँ नहीं हो सकती 
रोकने वाला वही तो है जिससे भाग रही हो 
  
मैं खुद के लिए लिखती हूँ
फिर वो सब के लिए कैसे हो सकता है
और अगर मैं सब के लिए लिखती हूँ 
फिर वो मेरा कैसे हो सकता है 
मैं किस के लिए लिखती हूँ 
मेरा श्रोता कौन है
अक्सर होता यूँ है
मैं लेखक, और मैं ही श्रोता 
होता यूँ भी है
दूसरों के लिखे हुए में भी
मैं थी लेखक और मैं ही श्रोता 

Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...