Thursday, 20 September 2012

"नहीं "

माल कुछ ऐसा जिसे ग्राहक मिला नहीं
शेर कुछ ऐसे जिसे श्रोता मिला नहीं
नन्ही जानें कुछ ऐसी जिन्हें माँ नसीब हुई नहीं 
ज्ञान कुछ ऐसा जिसका मान हुआ नहीं 
बरतन ऐसे जो कभी बजे नहीं 
बच्चे ऐसे जो कभी रूसे नहीं 
मर्द कुछ ऐसे जो कभी हँसते नहीं  
राज़ कुछ ऐसे जो छुपाये छुपते नहीं
अफवाह कुछ ऐसी जो रुके रूकती नहीं
शामें कुछ ऐसी जो लाख कोशिशों बावजूद अभी तक ढली नहीं 
यादें कुछ ऐसी .... 
घटिया कविताएँ कुछ ऐसी जो जाने-अनजाने आपको पढ़नी पड़ी 
 :)



Wednesday, 5 September 2012

मतलब बेमतलब की


पन्ने, उन पर लिपटी चंद पंक्तियाँ, मतलब बेमतलब की
झूझती हुई, मतलब के लिए लडती हुई 
और पीछे खड़ी परछाई,
लिखने वाले की 
लिखता इंसान है या दिल या दिमाक या कला 
सुनती हवाएं हैं, या आकांशाए , मतलब बेमतलब की
मैं कुछ कहूँ और हवाओं पे तैरते हुए तुझ तक पहुंच जाएँ 
बातें, मतलब बेमतलब की 




"तुम से नहीं होगा"


शक करना,शक जाताना, कहना तुम से नहीं होगा ये 
बच्चों के साथ मत करो ये सब 
हम भोगे हुए हैं, सो जानते हैं 
वो disapproval जो तुमने बस आँखों से ही जाता दिया था 
या यूँ अजीब सा मुह बनाकर जाहिर कर दिया था 
वो कहीं ठहर न जाए उसकी ज़िन्दगी में 
शक करना,शक जाताना, कहना तुम से नहीं होगा-ये सब 




Sunday, 2 September 2012

पलायनवादी परंपरा

बदल कड़के,मेघ बरसे
हम तरसे, हम तरसे 
अब जब यूँ है तरसे 
जी करता है, निकल पड़े घर से 
अब जब यूँ है तरसे 
जी करता है , गुम हो जाएँ इधर से 
हम  गुम हों, लोग गुमशुदा की रपट लिखवायें
पर हम  लौट के ना आयें 
भाग जाने में जो मज़ा है 
उसका स्वाद क्यूँ गवाया जाए 

पलायनवादी परंपरा  तो हमरी नसों में है  
हमने कई बार पलायन किया है 
इस बार एक नयी शुरुवात करना चाहते हैं , भाग कर 
इस बार इक नयी कहानी गढ़ना चाहते हैं, भाग कर 

Saturday, 21 July 2012

डर लगता है ज़िन्दगी मात दे देगी 
यहीं कहीं उलझी रहती हूँ 
फिर कभी एकदम से याद आता है, डर हावी होता है 

उलझना है तो उससे उलझूं 
गिडगिडाना है तो उसके सामने गिडगिडाऊँ 
ललकारना है तो उसे ललकारूं 

ज़िन्दगी- ये कहानी तेरी और मेरी है 

ये झगडा तेरा और मेरा है 
ये खुशगवार मौसम तेरे और मेरे बीच के हैं 
बाकी सब आने जाने हैं, मेहमान हैं 
मैं बाकियों में पड़ कर तुझे नही भूलना चाहती 
मुझे डर है तू मात न दे जाए 



Monday, 16 July 2012

हाथों की लकीरों पे तकदीर लिखी होती है ?
तो पैरों की पे क्यूँ नही ?
क्यूँ तकदीर लिखने वाले ने उसे हाथ पे ही छापना ठीक समझा 
या यूँ हुआ, पहले पहल समझने वाले को,
हाथ हाथ में ले कर, पकड़ना अच्छा लगा , पैर पकड़ने से 

माथे की लकीरें भी कुछ कहती हैं?
रेत इंसान होती तो रेत की लकीरें भी भाग्य बताती 
कुछ अपना, कुछ उनका जो उस के सीने को सहला के गए हैं 

रेत के भी अपने तरीकें होते हैं , वो मालूम नही होने देती
मुझसे पहले कितने उस पे चल के गए हैं 
मैं एक बार रेत पे गयी थी मेरा कुछ हिस्सा आज भी वहां है 

Sunday, 17 June 2012

आसमान के परे क्या है?
भगवान् की बस्ती?
परियों की हस्ती ?
या अथाह  फैला स्याह अँधेरा?

मेरे भीतर क्या धरा है?
कोई आत्मा या छोटे छोटे cells की फैक्ट्री

क्या पता? और क्या लेना मुझे?
क्या ज़रूरी है और क्या व्यर्थ ?





Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...