Monday 18 March 2013

जुगनुओं के दम पर चहकती रात 
बावरी हो, उसके सपनों में दौड़ती रात 
ख्वाबों की क्यारियाँ बनती, सपने सींचती रात 

उन्ही में से कुछ सपनों को, 
उसके सिरहाने छोड़ गयी थी रात
अब वो, बन बावरी है घूमती,
ढूँढती  है रात  

शाम ढले, जाने कब है आती 
और उसके उठने से पहले, चली जाती है रात 






2 comments:

  1. काफी वक्त पहले आपने मेरे ब्लॉग पर आमद दर्ज कराई थी। आपके कमेंट को पढ़कर आपके ब्लॉग तक पहुंचा।
    रात ढलती तो है,
    पर फिर आ जाती है एक रात
    अच्छी कविता

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  2. बन बावरी है घूमती...ढूँढती है रात....
    nice lines

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Kavyitri ko rat race kha gyi!

woh kavyitri kahan gyi use dhondti hun main  corporate kha gya us kavriti ko  par weekends to mere hain,  choices to meri hain  corporate me...