कभी कभी लगता है
कुछ ठीक नहीं है
किसी चीज़ में मज़ा नहीं है
कुछ देर लिखूंगी तो सुकून मिलेगा
चाहती हूँ निरंतर लिखती जाऊं
रुकों ही न, दम न भरने दूँ इस पेन को
घर के सारे पेन खाली हो जाएँ इतना लिखूं
हर बात समझ में आ जाए, इतना लिखूं
हर गाँठ खुल जाए, इतना लिखूं
बंधेज की चादर सामान हो गयी है ज़िन्दगी
मन करता है चादर झटक दूँ
और भाग जाऊं
फिर कभी किसी चादर से वास्ता न रखूं
पर यह तो फंतासी कहानियों जैसा होगा
ज़िन्दगी फंतासी कहानी क्यूँ नहीं हो सकती
रोकने वाला वही तो है जिससे भाग रही हो
तृप्ति जी ! बहुत खूब लिखा है आपने।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा।
सादर
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‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है
:) shukriya..padhne aur blog ke nvitation dono ke liye..
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